Saturday 15 December 2012

सडक का आदमी

 -सडक का आदमी

एक सफेद रोशनी के बिंब की तालाश मे,
सदियों से प्रतीक्षारत हूँ मैं,
हर बार परिवर्तन की पुरवाई में
एक नई उम्मीद पाली है मैंने,
...
पर आज भी नाउम्मीदी बरक्स खडी है मेरी ।

खून से सींचा है मैंने इस धरा को
लेकिन आज भी मेरी दुनिया ,
अभिजात्यता और सुविधा के बाहर की दुनिया है।
आखिर क्यूँ समाज का एक वर्ग अपनी लालसा पूर्ति के लिए
सारी संवेदनाओं को कुचलकर विक्षिप्त हो गया है।

मेरे जीवन में कहीं उपेक्षा तो कहीं अनुताप है
फिर भी इस चुनौतीपूर्ण जीवन को ,
आनन्दोत्सव की तरह जीता हूँ मैं।
जोखिम,हार-जीत और आशंका से घिरने के बावजूद भी
इस अंर्तद्वन्द के संस्कारों से
बाहर आना चाहता हूँ मैं।

आप सोच रहे होंगे,कौन हूँ मैं
मैं आम आदमी,सडक का आदमी हूँ....

(सौरभ)

जब मैं नहीं हूँ


 -जब मैं नहीं हूँ-

आज जब मैं नहीं हूँ
कहीं भी , किसी भी जगह
क्षितिज के भी पार

...


शून्य के प्रांगण से ।

मैं देख रहा हूँ
मेरी माँ के ममतामयी आँचल को,
दो उदास गीली आँखों को
जो तिरंगे में लिपटे एक ताबूत
और फूलों को देखकर
तब से पथरा गई हैं।

मेरी पत्नी तो जैसे
तंद्रा से उठी और
चीखकर गिर पडी।
मेरा तो हृदय शून्य में था
पर वह दृश्य मेरे लिए भी
हृदय विदारक ही था ।

नेपथ्य में बह रहे नदी के जल
और बादलों के श्वेत प्रतिरूप की तरह
मेरे पुत्र का मुखमंडल
जिसने मुझे मुखाग्नि दी
मैं देख रहा हूँ ।

मेरे दोस्तों को शायद तालाश थी
मेरे चिता की उठती लपटों से
केसरिया रंग की।
भावनाओं के अद्भुत संसार में ही
दबी रह गईं
मेरी तमाम हसरतें।
आज जब मैं नहीं हूँ
कहीं नहीं हूँ............

(सौरभ)

Sunday 4 November 2012

- सोच के सिरे-

ढलता रहा,चलता रहा
ये तो बस
सोच का एक सिरा था
जो हर एक पल बदलता रहा ।

ठीक,उन रेत के
बडे-बडे टीलों की तरह
जो हवा में पहाडों जैसा,
...
आकार लेते और बिगडते।

ठीक,पानी के बुदबुदों को
पकडने की कोशिश जैसे
जो एक पल को हथेलियों में समाते,
तो दूसरे ही पल बिखर जाते।

अकर्म्णयता,नाउम्मीदी और थकान में भी
क्यों सीने में कोई अहसास नहीं
क्या वक्त की आवाज मेरे साथ नहीं।
या फिर, सोच के सिरे ही,
इतने कडे हैं...............
सौरभ

- पैंतरे-

सुना है मैंने कि
जरूरी हैं पैंतरे
जीने के लिए...
कई बार देखा भी 
इन पैंतरों की हकीकत...
इतिहास गवाह है
मूक दर्शक है
स्वयं शिकार भी है
इन्हीं पैंतरों का....

रिश्तों से लेकर राष्ट्रों तक
गॉधी से लेकर अन्ना तक
गॉवों से लेकर शहरों तक
जब भी मूक समझौतों को
मौन स्वीकृति मिली...
सदैव जीतते रहे
शब्दों के बुनकर
इन्हीं पैंतरों से....
काश कि ये पैंतरे न होते।
(सौरभ)

Wednesday 15 August 2012

टूटते हुए एक भवन की व्यथा को अभिव्यक्त करती मेरी एक कविता............

मैं एक टूटता हुआ भवन हॅू
एक वक्त था जब
मेरी भी पहचान थी
गुजरने वाला हर पथिक
...

गौर से निहारता था मुझे
तब मुझमें भी कई रंग थे
आज मैं बदरंग हॅू
मैं एक टूटता हुआ भवन हॅू।

कल तक मेरा आस्तित्व
मुझे चुनौती देता था
आज मैं स्वयंआस्तित्वहीन हॅू
मैं एक टूटता हुआ भवन हॅू।

कल मेरी जगह होगी,कोई
अट्टालिका नई
नएपन से आकंठ सराबोर
आकर्षण से अभिभूत
पर अफसोस,उसमें नहीं होंगी
वर्षों पुरानी वो यादें
वो यादें,जो दफन हो जायेंगी
मेरे ही साथ,मेरे ही सीने में।

Tuesday 14 August 2012

गीता के निष्काम कर्म योग से प्रेरित मेरी एक कविता.....

मैं तो केवल एक दीप हॅू
एक ऐसा दीप
जो सदियों से निरंतर
जलता है और बझता है
पर सुना है मैंने कि
लोग मुझे सूरज कहते हैं।

कुछ लोगों ने मुझे
...
ईश्वर की उपमा दी
कुछ लोगों ने
सृष्टि का निर्मायक तत्व कहा
पर मुझे पता है मेरा सच
मैं इनमें से कुछ भी नहीं
मैं तो केवल एक दीप हॅू।

लेकिन हॅा,ये भी सच है
कि युगों-युगों से मैं
अपने कर्म पथ पर अडिग हॅू
मेरा कर्म ही मेरी नियति है
मेरी पहचान मेरे लिए
केवल एक तुच्छ दीप की है
पर सुना है मैंने कि
लोग मुझे सूरज कहते हैं।

Friday 10 August 2012

मृत्यु का अपना तर्कशास्त्र होता है और जिन्दगी का अपना. दोनों एक दूसरे की सौतन हैं. एक से लड़ो तो दूसरी प्यार करने लगती है. मौत से लड़ो तो जिन्दगी अपनी हो जाती है. और जिन्दगी से लड़ो तो मौत तड़ाक से खींच ले जाती है. विचित्र है न जीवन की यह गति! जो जिन्दगी अहर्निश छकाती है हम उसी के साथ रहने के लिए कौन-कौन से पैतरे नहीं खेल डालते. जबकि बेचारी मौत हर टेंशन अपने ऊपर लेकर हमें पूर्ण निर्द्वंद्व कर देती है. क्या अपने सामान्य व्यवहारों में रिश्तों के निर्वहन का यही चलन नहीं झलकता!"