-जब मैं नहीं हूँ-
आज जब मैं नहीं हूँ
कहीं भी , किसी भी जगह
क्षितिज के भी पार
...
शून्य के प्रांगण से ।
मैं देख रहा हूँ
मेरी माँ के ममतामयी आँचल को,
दो उदास गीली आँखों को
जो तिरंगे में लिपटे एक ताबूत
और फूलों को देखकर
तब से पथरा गई हैं।
मेरी पत्नी तो जैसे
तंद्रा से उठी और
चीखकर गिर पडी।
मेरा तो हृदय शून्य में था
पर वह दृश्य मेरे लिए भी
हृदय विदारक ही था ।
नेपथ्य में बह रहे नदी के जल
और बादलों के श्वेत प्रतिरूप की तरह
मेरे पुत्र का मुखमंडल
जिसने मुझे मुखाग्नि दी
मैं देख रहा हूँ ।
मेरे दोस्तों को शायद तालाश थी
मेरे चिता की उठती लपटों से
केसरिया रंग की।
भावनाओं के अद्भुत संसार में ही
दबी रह गईं
मेरी तमाम हसरतें।
आज जब मैं नहीं हूँ
कहीं नहीं हूँ............
(सौरभ)
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