Tuesday 26 April 2016

कुछ बातें मेरी भी -


पब्लिक डिबेट का विषय हमारे देश में ऋतुओं की तरह ही बदलता रहता है । अभी ग्रीष्म ऋतु के स्वागत में 'भारत माता की जय बोलने ' का मुद्दा गरमाया हुआ है । बेशक भारत माता की जय बोलना हर भारतीय के लिए गर्व का विषय है और एक मुस्लिम भाई 'भारत माता की जय बोले या न बोले' यह पूछने का हक़ हममें से किसी को नही है । हो सकता है ,हम रोज अपने माता ,पिता ,भाई ,बहन ,दोस्तों और पत्नी को यह नहीं बोल पाते हों की - I LOVE U ...DAD/MOM/BRO/SISTER/FRND/MY DEAR etc. पर इसका यह मतलब नहीं की हम उनसे प्यार नहीं करते । किसी से लगाव ,जुड़ाव अथवा प्यार आपकी बातों से ज्यादा आपके भावना और समर्पण से ज़ाहिर होता है । भारत माता की जय बोलने का विषय भी इससे अलग नहीं है । कुछ चतुर रंगरूटों ने इस मुद्दे को उछालकर अपना राजनीतिक स्वार्थ साधने का प्रयास किया । स्पष्ट है ,इस तरह से नारे को बोलने और नहीं बोलने वालों का दो समूह उभरता जिसका प्रत्यक्ष लाभ इन दोनों समूहों के धूर्त प्रतिनिधियों को मिलता ।
लेकिन इस पूरे प्रकरण में कुछ मुस्लिम बंधुओं ने गेम चेंजर की भूमिका निभाई । मैं सलाम करता हूँ -जावेद अख्तर साहब को , मेरठ के कुछ मुस्लिम भाइयों को जिन्होने बड़े ही जोशे -जुनून के साथ भारत माता की जय बोला । यह आपका बड़प्पन है । यह आपका अधिकार है । यह आपकी गहरी समझ को दिखाता है की आपने पल भर में यह समझ लिया की नारों का शोर मचाने वाले लोग देशभक्त नहीं धार्मिक उन्मादी हैं । मैं एक विनती करना चाहता हूँ अपने दोस्तों से ---ऐसे लोगों से दूर रहिए जो पहले आपसे कहते थे -'भारत माता की जय बोलो' और अब कहते हैं -''ज़ोर से'' भारत माता की जय बोलो '..यह देश हम सबका है और देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटना किसी की बपौती नहीं चाहे वह कोई भी हो ।
-सौरभ

कुछ बातें मेरी भी


सरकार द्वारा किए गए कार्यों की सकारात्मक आलोचना करना हर नागरिक का अधिकार है परंतु सभी प्रकार के सुधारों की उम्मीद सरकार से ही रखना एक निहायत ही घटिया मानसिकता है । मैंने पिछले कुछ महीनों में प्रसंगवश समाज के दोहरे चरित्र को बखूबी समझा । कुछ बातें हम पुस्तकों से सीखते हैं और जानते हैं और हमारा यह ज्ञान हमारे ''सोचे गए यथार्थ '' को ही बल प्रदान करता है । अगर आप ''भोगे हुए यथार्थ '' से परिचित होना चाहते हैं तो आपको इन किताबों कि तिलस्मी दुनिया से बाहर निकलकर समाज के इन दोमुहें सर्प रूपी ठेकेदारों से रूबरू होना होगा जो कमरे में बैठकर सिर्फ सरकारों कि आलोचना करना भर जानते हैं । मैं खुद अभी तक शायद किताबों कि तिलस्मी दुनिया से बाहर नहीं हूँ लेकिन इस तिलस्म को तोड़ने का हौसला जरूर रखता हूँ । हम सभी युवाओं को आगे बढ़कर हमारी प्राथमिकता तय करनी होगी । क्या हम सिर्फ सरकार कि आलोचना ही करेंगे या कुछ और भी ? क्या हम हमारी जिम्मेदारियों को पहचान रहे हैं ? आजादी की लड़ाई के दौरान गांधीजी ने संरचनात्मक कार्यक्रमों की रूपरेखा प्रस्तुत की थी जिसमे हिन्दू - मुस्लिम एकता को प्रोत्साहित करना , छुआछूत तथा जातिगत भेदभाव का उन्मूलन करना , साफ -सफाई को बल प्रदान करना आदि शामिल थे । आज जरूरत है पुनः इस संकल्पना को इसके वास्तविक स्वरूप में समझने की ।
आप खुद ही सोचिए - हमारे पीएम ने क्लीन इंडिया मिशन शुरू किया पर क्या इसे पूरा करना हमारे सहयोग के बिना संभव है ? क्या जातिगत भेदभाव को दूर करने की ज़िम्मेदारी देश में सिर्फ नरेंद्र मोदी के कंधों पर ही है ?क्या हिन्दू -मुस्लिम के बीच प्रेम और सौहार्द बढ़ाने की ज़िम्मेदारी भी सिर्फ इस पूरे देश में सिर्फ एक ही व्यक्ति के कंधों पर है ? जो लोग एसी कमरों में बैठकर सरकार को जातिवाद के मुद्दे पर घेरते हैं वो खुद ही अपने घरों में दलितों को किरायेदार के रूप में नही रखते । अगर आपको मेरी बात पर यकीन न हो तो कभी खुद को दलित बताकर किराए का मकान लेने की कोशिश करके देख लें । आज हर वो आदमी जो अपने आप भोंपू बजाकर देशभक्त कहता है मुझे उसकी देशभक्ति पर संदेह है ? यह जानते हुए भी की की किसी की देशभक्ति पर संदेह करने का मुझे कोई अधिकार नही ;मैं यह गलती बार -बार करूंगा , और यह गलती तब तक करूंगा जब तक यह सुनिश्चित न हो जाए की हर वह ब्राह्मण जो अपना घर किराए पर देता ह,उसके घर के बाहर एक तख्ती लगी हो जिसपर लिखा हो -''यहाँ मुस्लिम और दलित भाइयों का भी किराए के घर के लिए स्वागत है ।''जब तक यह सुनिश्चित नही होता हमें मोदी या किसी और की आलोचना का अधिकार नहीं । जब तक हम खुद को नही बदलते हमें किसी और बदलाव की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए । हमें अपने रथ में घोड़ों को अपनी गाड़ी से आगे लगाना होगा । हमें यह बात समझनी होगी की घोड़ों को रथ में गाड़ी से पीछे जोड़कर आगे बढ्ने का स्वप्न देखना बेवकूफी है ।
-सौरभ

'' क्या विश्वविद्यालय राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के अड्डे बनते जा रहे हैं ?''

------कुछ बातें मेरी भी ------------
आज यह मुद्दा गंभीर विमर्श का है कि-
'' क्या विश्वविद्यालय राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के अड्डे बनते जा रहे हैं ?''
मेरे विचार एकांगी हो सकते हैं ,अधूरे हो सकते हैं ,किसी विशेष मानसिकता से प्रेरित भी हो सकते हैं ;ऐसा डर मन में होने के बावजूद भी इस प्रश्न का उत्तर टटोलने की कोशिश करना मैं अपना दायित्व समझता हूँ । यह घोर निंदनीय है कि जेएनयू में देशविरोधी नारे लगे । एक प्रश्न यह भी है कि विश्वविद्यालयों में भ्रम ,अनिश्चितता तथा असुरक्षा के जो हालात हैं ;कहीं ये कृत्रिम तो नहीं ? बहरहाल समस्या स्वयं हमारी सोच से जुड़ी है । हम आनन -फानन में किसी भी विषय का सामान्यीकरण करने में पंडित तोताराम बन चुके हैं । नारे कुछ छात्रों ने लगाए थे जिनकी पहचान भी दीर्घ समय तक संधिग्ध ही है । हमे विमर्श का मुद्दा चुना - ''क्या जेएनयू को बंद कर देना चाहिए ?'' मेरे एक मित्र जो जेएनयू से जुड़े हैं ; ने बताया कि गाँव में थोड़ा माहौल गड़बड़ा गया है ।
अब लोग प्रश्नभरी निगाहों से हमारी तरफ देखते हैं ,जैसे की पूछ रहे हों ;'' का बबुआ !पढ़ाई -लिखाई होत बा कि महिषासुर के पुजाई में लागल बाड़?
मैं पूछना चाहता हूँ -जो गलती कुछ अंजान लोगों ने की उसकी सजा पूरे छात्र समुदाय को क्यूँ ? बार -बार विश्वविद्यालय पर निशाना साधकर इसे'' विष-विद्यालय '' बनाने पर क्यूँ तुले हो भाई !'' विषपुरुष'' ने'' परिधानमंत्री '' पर व्यक्तिगत हमला बोलकर राजनीतिक मोक्ष पा लिया । आपने बार -बार मुद्दे को ज़ोर -शोर से उछाल कर आपने खुद के राष्ट्रवादी होने का जीआई टैग भी पा लिया । अब जरूरत समस्या को समझने कि है ?
अचानक से लोग भी दो समूहों मे बंटे नजर आने लगे हैं । एक समूह दूसरे के लिए '' देशद्रोही ,सिकुलर '' जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने से नही चूक रहा । ऐसा देशभक्ति का ज्वार अचानक क्यूँ उमड़ गया ? क्या देशभक्ति बिना शोर - शराबे और ज़ोर -आज़माइश के नहीं समझ आती ? क्या संसदीय कारवाई में विपक्ष पहले बाधा नहीं पाहुचते थे ? क्या कुछ वर्षों पूर्व विरोध -आंदोलन इस देश में नहीं होते थे? क्या इसके पहले भूतपूर्व पीएम मनमोहन सिंह जी को ''मौन -मोहन '' कहकर राजनीतिक व्यंग नही गढ़े जाते थे ? क्या केजरीवाल को ''कजरू '' कहकर आपने कभी चुटकी नहीं ली ? क्या आपके ऐसा कह देने मात्र से आपको कभी देशद्रोही कहकर अपमानित किया गया ? क्या सच में हमें राजद्रोह / राष्ट्रद्रोह की परिभाषा पता है? नहीं , हममे से अधिकांश को नहीं । हमें यह जान लेना होगा कि ACT OF SPEECH को जबतक ACT OF VIOLENCE से जोड़कर सत्य प्रमाणों के साथ स्थापित नहीं किया जाता , हमें किसी को भी देशद्रोही कहने का कोई अधिकार नहीं । ''मीडिया ट्रायल '' और ''फेकबुक ट्रायल '' अंततः हमारे समाज के लिए घातक ही सिद्ध होगा । हमें हमारे समाज में ''धैर्य की संस्कृति '' को प्रोत्साहित करने की जरूरत है । मैं यह बात बीजेपी के सभी विरोधी दलों के संदर्भ में भी कह रहा हूँ । अगर जनता ने बीजेपी को चुना है तो जानबूझकर तरह -तरह के प्रोपगंडा से सरकार को अस्थिर करने की साजिश भी किसी घोर अपराध से कम नहीं है । हमारे विश्वविद्यालया के छात्रों को भी समझना होगा कि आज के समय में उनको विपक्षी दलों द्वारा राजनीतिक मोहरों के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है । इस बात से हमें सहमत होना ही होगा कि विकास के अजेंडे को जिस तरह से बीजेपी ने प्रमुखता दी है ; इस मामले में वह पूर्व के सभी सरकारों से सर्वोत्कृष्ट प्रदर्शन भी कर रही है । विश्वविद्यालय के छात्र देशद्रोही नहीं है ,विश्वविद्यालय राष्ट्रविरोधी गतिविधियों के अड्डे भी नहीं है । लेकिन यह सच है कि बहुत ही चतुराई से इन छत्रों को ''राजनीतिक अस्त्रों'' के रूप में प्रयोग करने कि साजिश हो रही है । हमें हमारे भाइयों को सच से परिचित करना होगा । हमें 'देशद्रोही' और 'राष्ट्रद्रोही' जैसे शब्दों के इस्तेमाल में अतीव सावधानी बरतनी होगी । हमारी यही असावधानी हमारे सामाजिक जुड़ाव को कमजोर बनाने में सक्षम है। हमारी यही असावधानी हमारी विफलता है ।
- -सौरभ

विषय : क्या ''वंदे मातरम ''का विरोध तार्किक है ?

कुछ बातें मेरी भी -

विवाद के पहलुओं के चर्चा से पूर्व ''वंदे मातरम '' का संक्षिप्त परिचय समझते हैं -

वंदे मातरम् भारत का राष्ट्रीय गीत है जिसकी रचना बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा की गई थी। इन्होंने 7 नवम्बर, 1876 ई. में बंगाल के कांतल पाडा नामक गाँव में इस गीत की रचना की थी। वंदे मातरम् गीत के प्रथम दो पद संस्कृत में तथा शेष पद बांग्ला भाषा में थे। राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने इस गीत को स्वरबद्ध किया और पहली बार 1896 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में यह गीत गाया गया। अरबिंदो घोष ने इस गीत का अंग्रेज़ी में और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया। 'वंदे मातरम्' का स्‍थान राष्ट्रीय गान 'जन गण मन' के बराबर है। यह गीत स्‍वतंत्रता की लड़ाई में लोगों के लिए प्ररेणा का स्रोत था।
वंदे मातरम् गीत का प्रथम पद इस प्रकार है-
 वंदे मातरम्, वंदे मातरम्!
 सुजलाम्, सुफलाम्, मलयज शीतलाम्'
शस्यश्यामलाम्, मातरम्!
वंदे मातरम्!
शुभ्रज्योत्सनाम् पुलकितयामिनीम्,
फुल्लकुसुमित द्रुमदल शोभिनीम्,
सुहासिनीम् सुमधुर भाषिणीम्,
सुखदाम् वरदाम्, मातरम्!
वंदे मातरम्, वंदे मातरम्॥
वर्तमान समय में समाज के कुछ लोगों द्वारा ''वंदे मातरम '' का पुरजोर विरोध किया जा रहा है । विरोधियों का तर्क है कि इस गीत की पंक्तियों में मूर्तिपूजा का भाव निहित है जो इस्लाम धर्म के सारभूत सिद्धांतों से संगत नहीं है तथा इसे गाने से धार्मिक भावनाएँ आहत होती हैं । मेरे लेखन का उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाओं को आहत करना नहीं बल्कि कुछेक साधारण तथ्यों और विश्लेषणों से भ्रम को उस आवरण को दूर करना है जो हमें सत्यता और तार्किकता से विलग करता है । इस विरोध को देखर ऐसा जरूर लगता है कि कुछ ऐसे मुसलमान हैं जो आज भी भारत को अपनी मातृभूमि नहीं मानते हैं । दोष इन मुसलमानों का नहीं है जो विरोध करते हैं बल्कि असली दोष उन क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थों से प्रेरित उन राजनेताओं का है जो अल्पसंख्यक समुदाय से राजनीतिक लाभ की प्राप्ति के लिए लोगों की भावनाओं को भड़काते हैं ।
वास्तविकता बिलकुल उलट है । ''वंदे मातरम '' किसी भी दृष्टि से इस्लाम विरोधी नहीं है । कुछ प्रश्न जो विचारणीय हैं ?-
1- जिस देश में हमने जन्म लिया ,जिस देश की मिट्टी में पलकर बड़े हुए ; क्या उसके प्रति आभार प्रकट करना इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों से अलग है ?
2-रूस तथा चीन जैसे देशों में भी बड़ी संख्या में मुसलमान हैं । इन देशों में किसी भी संवैधानिक पद पर शपथ लेते समय अनिवार्य रूप से मातृभूमि तथा पितृभूमि जैसे शब्दों का सम्बोधन करना होता है ।
(ए)-पूर्व सोवियत संघ के 1977 का अनुच्छेद 62-''रूस के हर नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह समाजवादी मातृभूमि की रक्षा करे । मातृभूमि के प्रति द्रोह से अधिक गंभीर अन्य कोई अपराध नही है ।
(बी )-चीनी गणतन्त्र के 1922 के संविधान का अनुच्छेद 55-
''प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह मातृभूमि की रक्षा करे और होने वाले आक्रमण का प्रतीकार करे । ''
भारतवर्ष में तो ''वंदे मातरम '' को लेकर कोई बाध्यकारी प्रावधान नही है फिर भी बार -बार इस पावन गीत का विरोध करना क्या राष्ट्र की भावनाओं को आहत करना नहीं है ?
3-तुर्की जो की स्वयं मुस्लिम बहुल देश है ; वहाँ के एक दल का नाम ''मातृभूमि दल ''रहा है ।
4-स्वयं बांग्लादेश रेडियो के कार्यक्रम राष्ट्रीय गीतों से प्रारम्भ होते हैं जिनमे एक गीत के शब्द हैं -''ओ माँ बांग्लादेश .......''
क्या अब भी कोई संदेह रह जाता है कि ''वंदे मातरम '' का विरोध भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष राज्य पर इसकी अस्मिता पर प्रश्न-चिन्ह उठाने के अतिरिक्त अन्य कुछ नही ?
''वंदे मातरम '' गीत तो हमारे स्वतन्त्रता आंदोलन की पूंजी है । स्वदेशी आंदोलन के दौरान जब आजादी के दीवाने सड़कों पर ब्रिटिश राज का विरोध करने निकलते थे तो एक ही ध्वनि गुंजायमान होती थी -''वंदे मातरम.....''इस गीत का भारत के स्वतंत्र संघर्ष में अप्रतिम योगदान रहा है । आजादी के मतवाले इस गीत की धुन पर अपने प्राणों की परवाह किए बगैर जलती लौ में कूद पड़ते थे । वो दीवाने सिर्फ हिन्दू नहीं थे । इस लड़ाई में हिंदुओं और मुसलमानों ने साथ -साथ शिरकत की थी । क्या आज इस गीत को धार्मिक मुद्दा बनाकर हम उन शहीदों की शहादत का मज़ाक नहीं बना रहे । आज के दिनों में जो लोग इसका विरोध प्रकट कर रहे हैं वो हिंदुस्तान के आस्तित्व को ही जाने -अंजाने में चुनौती दे रहे हैं । यह गीत हमारी स्वतन्त्रता का प्रतीक है , सांप्रदायिकता का नहीं । आज मुस्लिम लीग नहीं है लेकिन जो दल इस गीत का कृतिम विरोध कर राजनीतिक लाभ पाना चाहते हैं वो मुस्लिम लीग की शून्यता को ही भर रहे हैं । वो ये समझते हैं की जो काम वो मुस्लिम लीग के दिनों में कर सकते थे वो आज भी कर सकते हैं ।
हम सबको एक साथ मिलकर इस विरोध को सिरे से खारिज करना चाहिए और इस गीत को गर्व और आत्मसम्मान की भावना से अभिभूत होना चाहिए ।
गद्य रूप में श्री अरबिन्द घोष द्वारा किए गए अंग्रेज़ी अनुवाद का हिन्दी अनुवाद इस प्रकार है-
मैं आपके सामने नतमस्‍तक होता हूँ। ओ माता,
पानी से सींची, फलों से भरी,
दक्षिण की वायु के साथ शांत ,
कटाई की फ़सलों के साथ गहरा,
माता!
उसकी रातें चाँदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं,
उसकी ज़मीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुंदर ढकी हुई है,
हंसी की मिठास,
वाणी की मिठास,
माता, वरदान देने वाली, आनंद देने वाली।
आप स्वयं देखिये ,समझिए और निर्णय करिए -क्या यह विरोध तर्कसंगत है?
-------सौरभ

Saturday 5 January 2013

स्याह चेहरे

मेरे जागने से पहले ही सारे ख्वाब ,न जाने कहाँ खो जाते हैं
मुझे तेरे अलावा बाकी सभी याद आते हैं।

मेरे गुमनाम मुहब्बत का मुकद्दर तो देखो,
चिरागों के जलते हुए भी अँधेरे नजर आते हैं।

फासले मिटाने को जब भी चला हूँ ,दम भर
क्यूँ हम नदी के दो किनारे नजर आते हैं ।

भीड में जब भी देखता हूँ कुछ स्याह चेहरे
... आखिर वो क्यूँ हमारे नजर आते हैं ।

(सौरभ)

Wednesday 2 January 2013

-------------तेरी आवाज -----------

एक लडकी की जिंदगी का एक चरम बिन्दु जब उसका जीना ही उसके जीने का भ्रम बन गया । उसके बचपन का हर्ष और कुछ बहुत सारे वर्ष कहानियों में तब्दील हो गए । समाज की अनुशासनहीनता और अकर्मण्यता ने उस लडकी के परिवार को दुखों के रेगिस्तान में ढकेल दिया । फिर भी जीवन के प्रति सकारात्मक दृषि्टकोण रखने वाली लडकी को समर्पित मेरी एक कविता--------------


-------------तेरी आवाज -----------

दुख की दरिया,दुख की कश्ती,
आखिर तू अब क्यूँ है हॅसती ।

क्या है तेरे अन्तर्मन की दृष्टि,
तूने तो देखा संस्कृति,परंपरा और रिश्तों की वृष्टि ।

पानी को जलता देखा तूने,सूरज की शीतलता,
हमारे मर्यादाओं की थी,यह एक मूक विफलता ।
...
खून से तेरे शुरू हुआ अब,एक नया आगाज है,
तेरे दर्द से उपजी हुई,ये तेरी आवाज है।

आँखो से बहती हैं नदियाँ,स्वर में जैसे अँगारे हों,
बर्बरता की परख ये देखो,जैसे सब ये दर्द हमारे हों॥
(सौरभ)

 

Saturday 15 December 2012

सडक का आदमी

 -सडक का आदमी

एक सफेद रोशनी के बिंब की तालाश मे,
सदियों से प्रतीक्षारत हूँ मैं,
हर बार परिवर्तन की पुरवाई में
एक नई उम्मीद पाली है मैंने,
...
पर आज भी नाउम्मीदी बरक्स खडी है मेरी ।

खून से सींचा है मैंने इस धरा को
लेकिन आज भी मेरी दुनिया ,
अभिजात्यता और सुविधा के बाहर की दुनिया है।
आखिर क्यूँ समाज का एक वर्ग अपनी लालसा पूर्ति के लिए
सारी संवेदनाओं को कुचलकर विक्षिप्त हो गया है।

मेरे जीवन में कहीं उपेक्षा तो कहीं अनुताप है
फिर भी इस चुनौतीपूर्ण जीवन को ,
आनन्दोत्सव की तरह जीता हूँ मैं।
जोखिम,हार-जीत और आशंका से घिरने के बावजूद भी
इस अंर्तद्वन्द के संस्कारों से
बाहर आना चाहता हूँ मैं।

आप सोच रहे होंगे,कौन हूँ मैं
मैं आम आदमी,सडक का आदमी हूँ....

(सौरभ)