मृत्यु का अपना तर्कशास्त्र होता है और जिन्दगी का अपना. दोनों एक दूसरे की सौतन हैं. एक से लड़ो तो दूसरी प्यार करने लगती है. मौत से लड़ो तो जिन्दगी अपनी हो जाती है. और जिन्दगी से लड़ो तो मौत तड़ाक से खींच ले जाती है. विचित्र है न जीवन की यह गति! जो जिन्दगी अहर्निश छकाती है हम उसी के साथ रहने के लिए कौन-कौन से पैतरे नहीं खेल डालते. जबकि बेचारी मौत हर टेंशन अपने ऊपर लेकर हमें पूर्ण निर्द्वंद्व कर देती है. क्या अपने सामान्य व्यवहारों में रिश्तों के निर्वहन का यही चलन नहीं झलकता!"
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