Sunday 4 November 2012

- सोच के सिरे-

ढलता रहा,चलता रहा
ये तो बस
सोच का एक सिरा था
जो हर एक पल बदलता रहा ।

ठीक,उन रेत के
बडे-बडे टीलों की तरह
जो हवा में पहाडों जैसा,
...
आकार लेते और बिगडते।

ठीक,पानी के बुदबुदों को
पकडने की कोशिश जैसे
जो एक पल को हथेलियों में समाते,
तो दूसरे ही पल बिखर जाते।

अकर्म्णयता,नाउम्मीदी और थकान में भी
क्यों सीने में कोई अहसास नहीं
क्या वक्त की आवाज मेरे साथ नहीं।
या फिर, सोच के सिरे ही,
इतने कडे हैं...............
सौरभ

- पैंतरे-

सुना है मैंने कि
जरूरी हैं पैंतरे
जीने के लिए...
कई बार देखा भी 
इन पैंतरों की हकीकत...
इतिहास गवाह है
मूक दर्शक है
स्वयं शिकार भी है
इन्हीं पैंतरों का....

रिश्तों से लेकर राष्ट्रों तक
गॉधी से लेकर अन्ना तक
गॉवों से लेकर शहरों तक
जब भी मूक समझौतों को
मौन स्वीकृति मिली...
सदैव जीतते रहे
शब्दों के बुनकर
इन्हीं पैंतरों से....
काश कि ये पैंतरे न होते।
(सौरभ)